Monday, May 31, 2010

ज़िन्दगी का सफ़र

ज़िन्दगी का सफ़र

सफ़र पर हम निकल पड़े हैं, मंजिल का मगर पता नहीं |
चौरास्ते पर आके रुक गए है, सही राह हमें पता नहीं |

ऐसी ही दुविधा से हर कोई है गुज़रता |
ज़िन्दगी से आखिर हासिल करना है क्या
ये किसी को भी पता नहीं |

चौरास्ते पर होते है चार मोड़,
एक, जो दिल की मंजिल तक ले जाता है,
एक, जो दिमाग की बात सुन लेता है,
एक, जो दुनिया के कहने पर चलता है,
और, आखरी जो पीठ दिखाके भाग लेता है |

नसीब वाला हे वोह इंसान जिसे चुन्ने की कोई ज़रुरत नहीं |
एक सीदा रास्ता हो, कहीं कोई मोड़ नहीं |

पर ऐसी परिस्थितिया तो सिर्फ कल्पनाओ में संभव है,
वास्तव मे ऐसा रास्ता मैंने तो कभी देखा नहीं |

क्या किसीने कभी सोचा है की ज़िन्दगी के राह कि मंजिल आखिर हे, तो वो हे क्या?
ये सफ़र कब होता हे खतम?
और मौत इसकी आखरी मंजिल हे क्या?

मेरा तो ये मानना हे -

मौत मंजिल का अंत है, सफ़र कि आखरी मंजिल नहीं |
और मंजिल कि शुरुवात होती है तब, जब रास्ते मे कोई मोड़ बचे नहीं |

अर्थात

मंजिल का मतलब ये नहीं की रास्ता समाप्त हो जाता है |
मंजिल का मतलब ये है की हमें अब चुनने की ज़रुरत नहीं और,
चैन की ज़िन्दगी बिताके चैन से मर सकते हैं वहीँ |

श्रवण स्वरुप