वाह ज़िन्दगी…
एक तरफ दिल की आवाज़ तो दूसरी तरफ लोगों की पुकार हैं…
एक तरफ अपनी खुशी तो दूसरी तरफ अपनों का साथ हैं..
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
मंजिल सामने है, पर जा नहीं पा रहा हूँ मैं..
क्या चाहिए मुझे, ये तै नहीं कर पा रहा हूँ मैं..
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
अपना कौन पराया कौन कुछ समझ आता नहीं..
किसकी सुनु और किसकी नहीं, ये मुझे पता नहीं..
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
सभी अपने ही दिखते हैं.. सभी भला ही चाहते हैं..
पर कोई नहीं ये सोचता की मेरा दिल क्या चाहता हैं…
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
यार मिलते भी हैं, तो भिछडने केलिए..
खुशिया देती भी हैं तो, कुछ ही समय केलिए..
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
क्या करूँ क्या न करूँ कुछ समझ आता नहीं..
रास्ता दिखाने वाला कोई नज़र आता नहीं..
ज़िन्दगी यह मेरा एक चर्कव्युह बन गया हैं..
जिसका तोड़ मुझे, कहीं नज़र आता नहीं..
वाह ज़िन्दगी.. तू भी कितनी अजीब है…
---------------------------
श्रवण स्वरुप
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment